Tuesday, March 20, 2012

नम आँखें

बोलती नहीं ,
पर सब बतलाती हैं ,
नम आँखें सब कह जाती हैं ।
पता नहीं है नम का,
चीर जिगर को नहीं सकते ,
दिल दर्द से मचलता है,
आँखों में यह झलकता है ,
आईना है, सब दिखलाता है,
ये नम आँखे , ये नम आँखे !
न तेरी, न मेरी
ये दासता है पूरे ब्रहमांड की
नम आँखों की , नम आँखों की !!
                                      कु० जोमियर जीनी

Friday, March 16, 2012

साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्तकर्ता

सन् 1954 में अपनी स्थापना के समय से ही साहित्य अकादमी प्रतिवर्ष भारत की अपने द्वारा मान्यता प्रदत्त प्रमुख भाषाओं में से प्रत्येक में प्रकाशित सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक कृति को पुरस्कार प्रदान करती है। पहली बार ये पुरस्कार सन् 1955 में दिए गए।
पुरस्कार की स्थापना के समय पुरस्कार राशि 5,000/- रुपए थी, जो सन् 1983 में ब़ढा कर 10,000/- रुपए कर दी गई और सन् 1988 में ब़ढा कर इसे 25,000/- रुपए कर दिया गया। सन् 2001 से यह राशि 40,000/- रुपए की गई थी। सन् 2003 से यह राशि 50,000/- रुपए कर दी गई है।

वर्ष 2010 में 20 दिसंबर को साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा की गई। इस बार तीन कहानिकारों, चार उपन्यासकारों 8 कवियों और सात समालोचकों को यह पुरस्कार प्रदान किया गया।
  • उदय प्रकाश (हिंदी) कहानी (मोहनदास)
  • मनोज (डोगरी) कहानी
  • नांजिल नाडन (तमिल) कहानी
  • अरविन्द उजीर (बोडो) कविता
  • अरूण साखरदांडे (कोंकणी) कविता
  • गोपी नारायण प्रधान (नेपाली) कविता
  • वनीता (पंजाबी) कविता
  • मंगत बादल (राजस्थानी) कविता
  • मिथिला प्रसाद त्रिपाठी (संस्कृत) कविता
  • लक्ष्मण दुबे (सिन्धी) कविता
  • शीन काफ निजाम (उर्दू) कविता
  • बानी बसु (बांग्ला) उपन्यास
  • एस्थर डेविड (अंग्रेजी) उपन्यास
  • धीरेन्द्र मेहता (गुजराती) उपन्यास
  • एम. बोरकन्या (मणिपुरी)
  • केशदा महन्त (असमिया) समालोचना
  • बशर बशीर (कश्मीरी) समालोचना
  • रहमत तरिकरे (कन्नड़) समालोचना
  • अशोक रा. केलकर (मराठी) समालोचना
हिन्दी साहित्य में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्तकर्ता
  • 1955- माखनलाल चतुर्वेदी/ हिम तरंगिणी (काव्य)
  • 1956- वासुदेव शरण अग्रवाल /पद्मावत संजीवनी व्याख्या (व्याख्या)
  • 1957 आचार्य नरेन्द्र देव /बौध धर्म दर्शन (दर्शन)
  • 1958- राहुल सांकृत्यायन /मध्य एशिया का इतिहास (इतिहास)
  • 1959- रामधारी सिंह 'दिनकर' /संस्कृति के चार अध्याय (भारतीय संस्कृति)
  • 1960- सुमित्रानंदन पंत /कला और बूढ़ा चाँद (काव्य)
  • 1961- भगवतीचरण वर्मा /भूले बिसरे चित्र (उपन्यास)
  • 1962- पुरस्कार नहीं दिया गया
  • 1963- अमृत राय प्रेमचंद: कलम का सिपाही (जीवनी)
  • 1964- अज्ञेय आँगन के पार द्वार (काव्य)
  • 1965- डॉ. नगेन्द्र रस सिद्धांत (विवेचना) (विवेचना)
  • 1966- जैनेन्द्र कुमार/ मुक्तिबोध (उपन्यास)
  • 1967- अमृतलाल नागर /अमृत और विष (उपन्यास)
  • 1968- हरिवंशराय बच्चन /दो चट्टाने (काव्य)
  • 1969- श्रीलाल शुक्ल/ राग दरबारी (उपन्यास)
  • 1970- रामविलास शर्मा /निराला की साहित्य साधना (जीवनी)
  • 1971- नामवर सिंह कविता के नये प्रतिमान (साहित्यिक आलोचना)
  • 1972- भवानीप्रसाद मिश्र बुनी हुई रस्सी (काव्य)
  • 1973- हज़ारी प्रसाद द्विवेदी /आलोक पर्व (निबंध)
  • 1974- शिवमंगल सिंह सुमन /मिट्टी की बारात (काव्य)
  • 1975- भीष्म साहनी/ तमस (उपन्यास)
  • 1976- यशपाल/ मेरी तेरी उसकी बात (उपन्यास)
  • 1977- शमशेर बहादुर सिंह/ चुका भी हूँ मैं नहीं (काव्य)
  • 1978- भारतभूषण अग्रवाल /उतना वह सूरज है (काव्य)
  • 1979- धूमिल /कल सुनना मुझे (काव्य)
  • 1980- कृष्णा सोबती/ ज़िन्दगीनामा - ज़िन्दा रुख़ (उपन्यास)
  • 1981- त्रिलोचन /ताप के ताये हुए दिन (काव्य)
  • 1982- हरिशंकर परसाईं/ विकलांग श्रद्धा का दौर (व्यंग)
  • 1983- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना/ खूँटियों पर टँगे लोग (काव्य)
  • 1984- रघुवीर सहाय /लोग भूल गये हैं (काव्य)
  • 1985- निर्मल वर्मा /कव्वे और काला पानी (कहानी संग्रह)
  • 1986- केदारनाथ अग्रवाल/ अपूर्वा (काव्य)
  • 1987- श्रीकांत वर्मा/ मगध (काव्य)
  • 1988- नरेश मेहता/ अरण्या (काव्य)
  • 1989- केदारनाथ सिंह अकाल में सारस (काव्य)
  • 1990- शिवप्रसाद सिंह/ नीला चाँद (उपन्यास)
  • 1991- गिरिजाकुमार माथुर/ मैं वक़्त के हूँ सामने (काव्य)
  • 1992- गिरिराज किशोर /ढाई घर (उपन्यास)
  • 1993- विष्णु प्रभाकर /अर्धनारीश्वर (उपन्यास)
  • 1994- अशोक वाजपेयी /कहीं नहीं वहीं (काव्य)
  • 1995- कुंवर नारायण /कोई दूसरा नहीं (काव्य)
  • 1996- सुरेन्द्र वर्मा/ मुझे चाँद चाहिये (उपन्यास)
  • 1997- लीलाधर जगूड़ी /अनुभव के आकाश में चांद (काव्य)
  • 1998- अरुण कमल/ नये इलाके में (काव्य)
  • 1999- विनोद कुमार शुक्ल /दीवार में एक खिड़की रहती थी (उपन्यास)
  • 2000- मंगलेश डबराल /हम जो देखते हैं (काव्य)
  • 2001- अलका सरावगी / कलिकथा वाया बाईपास (उपन्यास)
  • 2002- राजेश जोशी/ दो पंक्तियों के बीच (काव्य)
  • 2003- कमलेश्वर/ कितने पाकिस्तान (उपन्यास)
  • 2004- वीरेन डंगवाल /दुष्चक्र में सृष्टा (काव्य)
  • 2005- मनोहर श्याम जोशी/ क्याप (उपन्यास)
  • 2006- ज्ञानेन्द्रपति/ संशयात्मा (काव्य)
  • 2007- अमरकांत/ इन्हीं हथियारों से (उपन्यास)
  • 2008- गोविन्द मिश्र /कोहरे में कैद रंग (उपन्यास)
  • 2009- कैलाश वाजपेयी /हवा में हस्ताक्षर (काव्य)
  • 2010- उदय प्रकाश/ मोहनदास (कहानी)

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भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्तकर्ता



ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है।  भारत का कोई भी नागरिक जो आठवीं अनुसूची में बताई गई २२ भाषाओं में से किसी भाषा में लिखता हो इस पुरस्कार के योग्य है। पुरस्कार में पांच लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। १९६५ में १ लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए इस पुरस्कार को २००५ में ७ लाख रुपए कर दिया गया। २००५ के लिए चुने गए हिन्दी साहित्यकार कुंवर नारायण पहले व्यक्ति थें जिन्हें ७ लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार १९६५ में मलयालम लेखक जी शंकर कुरुप को प्रदान किया गया था। उस समय पुरस्कार की धनराशि १ लाख रुपए थी। १९८२ तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था। लेकिन इसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। अब तक हिन्दी तथा कन्नड़ भाषा के लेखक सबसे अधिक सात बार यह पुरस्कार पा चुके हैं। यह पुरस्कार बांग्ला को ५ बार, मलयालम को ४ बार, उड़िया, उर्दू और गुजराती को तीन-तीन बार, असमिया, मराठी, तेलुगू, पंजाबी और तमिल को दो-दो बार मिल चुका है।

२२ मई १९६१ को भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक श्री साहू शांति प्रसाद जैन के पचासवें जन्म दिवस के अवसर पर उनके परिवार के सदस्यों के मन में यह विचार आया कि साहित्यिक या सांस्कृतिक क्षेत्र में कोई ऐसा महत्वपूर्ण कार्य किया जाए जो राष्ट्रीय गौरव तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिमान के अनुरूप हो। इसी विचार के अंतर्गत १६ सितंबर १९६१ को भारतीय ज्ञानपीठ की संस्थापक अध्यक्ष श्रीमती रमा जैन ने न्यास की एक गोष्ठी में इस पुरस्कार का प्रस्ताव रखा। २ अप्रैल १९६२ को दिल्ली में भारतीय ज्ञानपीठ और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संयुक्त तत्त्वावधान में देश की सभी भाषाओं के ३०० मूर्धन्य विद्वानों ने एक गोष्ठी में इस विषय पर विचार किया। इस गोष्ठी के दो सत्रों की अध्यक्षता डॉ वी राघवन और श्री भगवती चरण वर्मा ने की और इसका संचालन डॉ.धर्मवीर भारती ने किया। इस गोष्ठी में काका कालेलकर, हरेकृष्ण मेहताब, निसीम इजेकिल, डॉ. सुनीति कुमार चैटर्जी, डॉ. मुल्कराज आनंद, सुरेंद्र मोहंती, देवेश दास, सियारामशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, उदयशंकर भट्ट, जगदीशचंद्र माथुर, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. बी.आर.बेंद्रे, जैनेंद्र कुमार, मन्मथनाथ गुप्त, लक्ष्मीचंद्र जैन आदि प्रख्यात विद्वानों ने भाग लिया। इस पुरस्कार के स्वरूप का निर्धारण करने के लिए गोष्ठियाँ होती रहीं और १९६५ में पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार का निर्णय लिया गया।
 
 
 
 
 
 
वर्ष नाम कृति भाषा
१९६५ जी शंकर कुरुप ओटक्कुष़ल (वंशी) मलयालम
१९६६ ताराशंकर बंधोपाध्याय गणदेवता बांग्ला
१९६७ के.वी. पुत्तपा श्री रामायण दर्शणम कन्नड़
१९६७ उमाशंकर जोशी निशिता गुजराती
१९६८ सुमित्रानंदन पंत चिदंबरा हिन्दी
१९६९ फ़िराक गोरखपुरी गुल-ए-नगमा उर्दू
१९७० विश्वनाथ सत्यनारायण रामायण कल्पवरिक्षमु तेलुगु
१९७१ विष्णु डे स्मृति शत्तो भविष्यत बांग्ला
१९७२ रामधारी सिंह दिनकर उर्वशी हिन्दी
१९७३ गोपीनाथ महान्ती माटीमटाल उड़िया
१९७३ दत्तात्रेय रामचंद्र बेन्द्रे नकुतंति कन्नड़
१९७४ विष्णु सखाराम खांडेकर ययाति मराठी
१९७५ पी.वी. अकिलानंदम चित्रपवई तमिल
१९७६ आशापूर्णा देवी प्रथम प्रतिश्रुति बांग्ला
१९७७ के. शिवराम कारंत मुक्कजिया कनसुगालु कन्नड़
१९७८ अज्ञेय कितनी नावों में कितनी बार हिन्दी
१९७९ बिरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य मृत्यंजय असमिया
१९८० एस.के. पोत्ताकट ओरु देसात्तिन्ते कथा मलयालम
१९८१ अमृता प्रीतम कागज ते कैनवास पंजाबी
१९८२ महादेवी वर्मा यामा हिन्दी
१९८३ मस्ती वेंकटेश अयंगार
कन्नड़
१९८४ तकाजी शिवशंकरा पिल्लै
मलयालम
१९८५ पन्नालाल पटेल
गुजराती
१९८६ सच्चिदानंद राउतराय
ओड़िया
१९८७ विष्णु वामन शिरवाडकर कुसुमाग्रज
मराठी
१९८८ डा.सी नारायण रेड्डी
तेलुगु
१९८९ कुर्तुलएन हैदर
उर्दू
१९९० वी.के.गोकक
कन्नड़
१९९१ सुभाष मुखोपाध्याय
बांग्ला
१९९२ नरेश मेहता
हिन्दी
१९९३ सीताकांत महापात्र
ओड़िया
१९९४ यू.आर. अनंतमूर्ति
कन्नड़
१९९५ एम.टी. वासुदेव नायर
मलयालम
१९९६ महाश्वेता देवी
बांग्ला
१९९७ अली सरदार जाफरी
उर्दू
१९९८ गिरीश कर्नाड
कन्नड़
१९९९ गुरदयाल सिंह
पंजाबी
१९९९ निर्मल वर्मा
हिन्दी
२००० इंदिरा गोस्वामी
असमिया
२००१ राजेन्द्र केशवलाल शाह
गुजराती
२००२ दण्डपाणी जयकान्तन
तमिल
२००३ विंदा करंदीकर
मराठी
२००४ रहमान राही[5]
कश्मीरी
२००५ कुँवर नारायण
हिन्दी
२००६ रवीन्द्र केलकर
कोंकणी
२००६ सत्यव्रत शास्त्री
संस्कृत
२००७ ओ.एन.वी. कुरुप
मलयालम
२००८ अखलाक मुहम्मद खान शहरयार
उर्दू
२००९ श्रीलाल शुक्ल
हिन्दी
२०१० चन्द्रशेखर कम्बार
कन्नड


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Wednesday, March 14, 2012

व्यास सम्मान से सम्मानित साहित्यकार

कवि सम्मेलन

हिन्दी साहित्य मंच, चन्द्रपुर ,एक शाम हिन्दी के नाम कवि सम्मेलन ...

Tuesday, March 13, 2012

चूहे और बिल्लियाँ


चूहे और बिल्लियां

        चूहे और बिल्ली प्रागैतिहासिक काल से मानव-कौतूहल का विषय रहे हैं। हालांकि हमारी सभ्यता एवं संस्कृति में स्थान तो चूहे एवं बिल्ली दोनों को मिला है, लेकिन चूहों को बिल्लियों से अधिक महत्त्व मिला है। यह एक अजीबोगरीब विरोधाभास है। वैसे आर्थिक दृष्टिकोण से बिल्ली मनुष्य की दोस्त होनी चाहिए थी एवं चूहे दुश्मन ! परंतु सांस्कृतिक हकीकत इसके धुर विपरीत है। पता नहीं, गणेशजी ने चूहे में ऐसी क्या महानता देखी कि पुष्पक विमान जैसी आरामदेह सवारियां त्यागकर चूहे को अपना ऑफिशियल वाहन घोषित कर दिया। कई बार यह शक होता है कि भांग के नशे में उन्हें कोई चूहा हाथी जैसा विशालकाय दिखा होगा और एक बार मुंह से निकलने पर चूहा गणेशजी के पैरों में लिपट गया होगा–‘महाराज मैं जैसा भी हूं, आपके आशीर्वाद से आपका भार भी उठा लूंगा। आप स्वयं मुझे अपना वाहन स्वीकार कर चुके हैं। अब मैं आपके अतिरिक्त किसी को भी अपने ऊपर सवार नहीं होने दूंगा और जन्म-जन्मांतर तक आप ही की सेवा में रहूंगा।’ हो सकता है, चालाक चूहे ने गोबर गणेशजी को धमकी भी दे दी हो कि हे भगवान, यदि आप अपनी बात से हटे तो मैं आत्महत्या कर लूंगा ! और वे दया खा गए हों।

            एक कारण और हो सकता है चूहे को वाहन रूप में गणेशजी द्वारा स्वीकार किए जाने के पक्ष में। संभव है कि प्राचीनकाल में, जब गणेशजी का जन्म हुआ था, तब बिल्लियां न रही हों, तथा उनकी उत्पत्ति काफी समय बाद द्वापर या कलियुग में हुई हो। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जहां बिल्लियां नहीं होती, वहां के चूहे बिल्ली से भी ज्यादा तगड़े हो जाते हैं। निश्चय ही सतयुग के चूहे वर्तमान चूहों से काफी हृष्ट-पुष्ट रहे होंगे। दरअसल आसपास बिल्ली की उपस्थिति चूहों को डायटिंग के लिए मजबूर करती है। यदि बिल्ली वाले घर में चूहे बिना डायटिंग किए दिन-रात जमकर खाते रहें, तो वह अपने मोटापे के कारण तेज भागने में सफल नहीं होंगे। यही कारण है कि बिल्लियों के डर से चूहे भी वैसे ही भयभीत रहते हैं, जैसे मोटापे से डरने वाली सुंदर, छरहरी महिलाएं ! बिल्लियों के रहते चूहों को डर-डरकर जीना पड़ता है; इसीलिए दुबले-पतले घरेलू चूहों को देखकर अनायास ही यह शक होना स्वाभाविक है कि चूहे गणेशजी का वजन कैसे उठाते होंगे ?

          खैर, यह चूहे जानें और गणेशजी कि वे कैसे आपस में सामंजस्य बिठाते हैं। यह दोनों के बीच का पर्सनल मामला है। बहरहाल हमें तो यही लगता है कि पौराणिक काल में चूहे लगभग हाथी के साइज के ही होते होंगे, तभी विशालकाय गणेशजी उनकी सवारी कर पाते होंगे। यूं थोड़े उन्नीस-बीस जोड़े तो बहुत से पति-पत्नियों के भी होते हैं। हमारे पड़ोसी शर्माजी तो चूहों से भी हल्के कॉकरोची काया के हैं, फिर भी बेचारे तीस-पैंतीस साल से गजगामिनी मिसेज शर्मा को ढो रहे हैं, हालांकि उनके पास एक अदद खटारा स्कूटर है।

मेरे एक अनन्य मित्र हैं। वह प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्य वेद, उपनिषद् और पुराण आदि के मुझसे कई गुणा बड़े जानकार हैं। उनके मतानुसार, गणेशजी यूं ही तैंतीस करोड़ देवताओं में सबसे बुद्धिमान नहीं मान लिए गए। वे समस्त कार्यों में अपनी विलक्षण बुद्धिमत्ता का परिचय देते थे। उनका मानना है कि गणेशजी ने सब जांच-परखकर ही चूहे को अपना वाहन चुना है। एक तो चूहे हर गांव, शहर, प्रदेश, देश एवं समस्त ब्रह्मांड में मिलते हैं। अतः जहां भी जाओ, वहां सवारी का इतंजार नहीं करना पड़ता। दुनिया-भर के एयरपोर्ट व रेलवे स्टेशनों से लेकर जंगल एवं खेतों तक में एक आवाज पर हजारों चूहें दौड़कर आ जाते हैं। संसार में इतनी सर्वसुलभ उपलब्धता शायद ही किसी अन्य वाहन की होगी। इसके अतिरिक्त चूहे के रख-रखाव का खर्च भी नगण्य है। हाथी जैसा भारी-भरकम वाहन बांधने पर किसी भी रईस का साल दो साल में दीवाला निकल सकता है। इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े शहंशाह भी हाथियों की फौज बांधकर कंगाली के कगार पर पहुंच गए थे। यह भी प्रामाणिक पौराणिक सत्य है कि इंद्र की आय का एक बड़ा हिस्सा अकेले ‘ऐरावत’ की मेंटेनेंस पर खर्च होता है। संभवतः यही सब देखकर गणेशजी ने सोच-समझकर चूहे का चुनाव किया होगा, ताकि जहां जाओ, रात होते ही अपने प्रिय वाहन को किसी के भी खेत, गोदाम या घर में छोड़ दो। वहीं घुसकर कागज, कपड़ा रोटी, चावल जो भी मिले, वही खा-पीकर पल जाता है चूहा। न चारे की व्यवस्था करने की जरूरत और न खली-सानी की मशक्कत। महाबदमाश चूहों के इन्हीं सद्गुणों पर गणेशजी मुग्ध हुए होंगे।

          चूहों की तुलना में बिल्लियां उतनी भाग्यशाली कभी नहीं रहीं। चूहे प्लेग की महामारी फैलाते हैं, यह सर्वविदित वैज्ञानिक सत्य है, फिर भी उनकी किस्मत देखिए कि वे न केवल गणेशजी की सवारी हैं, बल्कि बीकानेर (राजस्थान) स्थित करणी माता के मंदिर में बड़े श्रद्धाभाव से पूजा भी की जाती है चूहों की। यह सब मौज-मस्ती केवल गणेशजी की बदौलत ही है। उन्हें गणेशजी का आशीर्वाद न होता तो आज चूहों का हमारे यहां भी वियतनाम और चीन जैसा हश्र होता, जहां चूहा दिखते ही उसे मारकर स्वादिष्ट सूप बनाकर पी जाते हैं, और चूहा मारने पर वहां तो प्रति मृत चूहा इनाम तक की व्यवस्था है।

        अपने यहां की बिल्लियां किस्मत की कतई धनी नहीं हैं। विदेशों में फिर भी बिल्लियों को अच्छी नजर से देखा जाता है, मगर अपने यहां बिल्लियों को वैसा सम्मान नहीं मिलता, जैसा अन्य जानवरों एवं पक्षियों को मिलता है। बड़े देवताओं की तो खैर छोड़ो, किसी लोकल अथवा छुटभैये देवता ऩे भी बिल्ली को अपना वाहन नहीं बनाया। यह बिल्ली का दुर्भाग्य ही है कि असंख्य गुणों की खान होते हुए भी उस पर कभी किसी देवता की कृपादृष्टि नहीं पड़ी। बिल्ली की जाति का ही शेर–जो रिश्ते में बिल्ली का भानजा है (बिल्ली शेर की मौसी है, ऐसा हमारी कई किताबों में लिखा है)–मां दुर्गा की सवारी है। मगर बिल्ली, जिसमें शेर से कहीं अधिक स्फूर्ति, बचाव के बेहतरीन तरीके एवं अन्य कई महान गुण विद्यमान हैं, जानवर-जगत की ‘मिस यूनिवर्स’ होकर भी अपने ऊपर किसी देवी-देवता को मोहित नहीं कर सकी। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि बिल्लियां स्वाभिमानी होती हैं, चमचागिरी करने के लिए किसी दैव-दरबार में हाजिर नहीं होतीं। वे अपने बूते जिंदा रहती हैं। उन्हें किसी ‘गॉडफादर’ या ‘गॉडमदर’ की जरूरत नहीं है। इस दृष्टि से देखने पर बिल्लियां मुझे सिर्फ खूबसूरत ही नहीं, अपितु पूजनीय लगती हैं।


                                                                                                                                                                                              आलोक कुमार

Tuesday, March 6, 2012

सपनों का रामराज्य


         रामराज्य

आवाज़ लगाई किसी ने
रामराज्य आ गया !
मैंने देखा सचमुच वर्षों बीत गये
सबके चेहरों पर चमक है
आज़ादी और बेफ़िक्री की
सब लोग घूम रहे हैं बेखौफ़
जैसे अभी मिली हो आज़ादी-सचमुच
कहीं कोई बम बिस्फ़ोट नहीं
कोई ट्रेन हादसा नहीं ।
कहीं कोई मन्दिर नापाक नहीं हुआ
आतंकी इरादों से  ।
नहीं लूटी गई आबरू
किसी भी देवी की ।
कोई बच्चा अनाथ नहीं हुआ
धर्म, क्षेत्र और भाषा के नाम पर
कहीं दंगा नहीं हुआ ।
और देखा…..
बोडोलैण्ड खुश है अपने क्षेत्र में
शांत हो गए हैं नक्सली
माओवादी तो जैसे कभी थे ही नहीं
कभी नहीं इस देश में ।
पुलिस , पत्रकार और न्यूज़ चैनल वाले तो
बेरोज़गार हैं जैसे ।
कोई अपराध समाचार नहीं
कोई अपराधी नहीं ।
वर्षों से कोई फ़िल्म नहीं  बनी
लज्जा और क्रांतिवीर जैसी ।
और जो देखा अद्भुद था…
गांधी, नेहरू ,अम्बेडकर की आत्माएँ
देख रहीं हैं स्वर्ग से
और प्रसन्नचित्त थी
फिर से जिजीविषा जाग उठी उनमें ।
भगत, आज़ाद और सुभाष भी
देख रहे थे और
हो रहा था गर्व उनको
अपने बलिदान पर ।
कारागार में दी गई
हर एक यातनाएँ जैसे
शुकून दे रहीं थी उनको ।
देश का हर नौजवान
भगत और आज़ाद हो गया था ।
नौबत नहीं आई फिर से
’लज्ज’ और ’कितने पाकिस्तान’ लिखने की
फिर कोई इंडियन मुजाहिद्दीन नहीं बना
बस सब इंडियन ही रहे ।
और देखा दस्तक दे रहा है नया साल
नई उमंग, नई तरंग
शांति, सुख, सद्भावना, समता
और कुछ नहीं…
आवाज़ आई तभी
खुल गई नीद, टूट गया सपना
किसी ने कहा…
विस्फोट कर दिया आतंकवादियों ने
आरती में वाराणसी के गंगा घाट पर
समाप्त हो गई जीवनलीला
एक मासूम सहित कईयों की ।
तुलसी का रामराज्य
था एक यूटिपिआ
और मेरा सपना..
सचमुच सपना ही था ।
पर यह सपना शायद…..!

                                               दीपक कुमार ’पुष्प’

Thursday, March 1, 2012

कितने पाकिस्तान-एक ऐतिहासिक दस्तावेज़






अभी थोड़े दिन पहले कितने पाकिस्तान उपन्यास पढ़ा । महान कथाकार कमलेश्वर द्वारा लिखित यह बहुत ही अहम,ऐतिहासिक और कालजयी रचना है । सन्‌ २००३ में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया । इसे पढ़ते हुए भारत का संपूर्ण इतिहास मानस पटल पर चलचित्र की भाँति नाचने लगता है । यह उपन्यास दुनिया भर की आत्माओं से किया गया जिरह है जो लेखक के अंतर्द्वंद्व से निकला है । कमलेश्वर इसे सन्‌ १९९० में लिखना प्रारंभ किए थे | उपन्यास लिखने के लिए लेखक ने विधिवत छुट्टी लेकर देहरादून गये और संपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज़ के साथ लिखना प्रारंभ किए । यह उपन्यास मानवता के दरवाज़े पर समय और इतिहास की दस्तक है । समय की अदालत में एक-एक कर दुनिया की सभी आत्माओं को समय द्वारा एक-एक कर बुलाया जाता है जो इतिहास की नदी को बहते, उसमें पात्रों को और घटनाओं को डूबते उतराते हुए देखता है - कानपुर का रेलवे स्टेशन, श्री राम द्वारा शम्बूक का वध, अहिल्या का बलात्कार,  मेसोपोटामिया का सम्राट गिलगमेश, आर्यों का भारत पर आक्रमण , कश्मीर, बोस्निया, बाबरी मस्जिद, जिन्ना, मौंटबेटन, अफगानिस्तान, औरंगजेब, टीपू, महाभारत, हिटलर, दारा शिकोह ,और न जाने कितनी आत्माओं पेश किया जाता है । कितने पाकिस्तान दुनिया के ऐसे तमाम देशों का प्रतीक है जिनका निर्माण किसी त्रासदी के परिणामस्वरूप होता है । साथ ही दुनिया से यह आशा की जाती है कि एक के बाद एक कितने पाकिस्तान बनने यह परंपरा बंद होगी ....।