Friday, April 27, 2012

प्रेम-पथ हो न सूना/ गोपालदास नीरज

प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।

क़ब्र-सी मौन धरती पड़ी पाँव परल
शीश पर है कफ़न-सा घिरा आसमाँ,
मौत की राह में, मौत की छाँह में
चल रहा रात-दिन साँस का कारवाँ,

जा रहा हूँ चला, जा रहा हूँ बढ़ा,
पर नहीं ज्ञात है किस जगह हो?
किस जगह पग रुके, किस जगह मगर छुटे
किस जगह शीत हो, किस जगह घाम हो,

मुस्कराए सदा पर धरा इसलिए
जिस जगह मैं झरूँ उस जगह तुम खिलो।

प्रेम-पथ हो नस सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
प्रेम का पंथ सूना अगर हो गया,
रह सकेगी बसी कौन-सी फिर गली?
यदि खिला प्रेम का ही नहीं फूल तो,
कौन है जो हँसे फिर चमन में कली?

प्रेम को ही न जग में मिला मान तो
यह धरा, यह भुवन सिर्फ़ श्मशान है,
आदमी एक चलती हुई लाश है,
और जीना यहाँ एक अपमान है,

आदमी प्यार सीखे कभी इसलिए
रात-दिन मैं ढलूँ, रात-दिन तुम ढलो।

प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।

एक दिन काल-तम की किसी रात ने
दे दिया था मुझे प्राण का यह दिया,
धार पर यह जला, पार पर यह जला
बार अपना हिया विश्व का तम पिया,

पर चुका जा रहा साँस का स्नेह अब
रोशनी का पथिक चल सकेगा नहीं,
आँधियों के नगर में बिना प्यार के
दीप यह भोर तक जल सकेगा नहीं,

पर चले स्नेह की लौ सदा इसलिए
जिस जगह मैं बुझूँ, उस जगह तुम जलो।

प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।

रोज़ ही बाग़ में देखता हूँ सुबह,
धूल ने फूल कुछ अधखिले चुन लिए,
रोज़ ही चीख़ता है निशा में गगन-
'क्यों नहीं आज मेरे जले कुछ दीए ?'

इस तरह प्राण! मैं भी यहाँ रोज़ ही,
ढल रहा हूँ किसी बूँद की प्यास में,
जी रहा हूँ धरा पर, मगर लग रहा
कुछ छुपा है कहीं दूर आकाश में,

छिप न पाए कहीं प्यार इसलिए
जिस जगह मैं छिपूँ, उस जगह तुम मिलो।

सौजन्य से- हिन्दी कुंज

कुछ सपनों के मर जाने से/गोपालदास ’नीरज’

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ लुटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है.
सपना क्या है, नयन सेज पर सोया हुई आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है.
माला बिखर गई तो क्या है, ख़ुद ही हल हो गई समस्या
आँसू ग़र नीलाम हुए तो, समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फ़टी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आंगन नहीं मरा करता है.
लाखों बार गगरियाँ फूटीं, शिक़न नहीं आई पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों
लाख करे पतझड़ क़ोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है.
लूट लिया माली ने उपवन, लुटी न लेकिन गंध फूल की
तूफ़ानों तक ने छेड़ा पर, खिड़की बंद न हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है.
 
सौजन्य से -हिन्दी कुंज

Wednesday, April 25, 2012

कफ़न by Dilip Raghuvanshi

कफ़न भाग १

Rajesh Sisodia "क्फ़न" story of Munshi Premchand

कबीर के दोहे

दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय ।
जो सुख मे सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥


तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥ 2 ॥


माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥


गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥


बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥


कबीरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥


सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥


साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥


लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥


जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥


जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥


धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥


कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥


पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥


कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥


शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥


माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥


माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥


रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥


नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥


जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥


दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥

आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥


काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥


माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥


जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥


माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥


आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥


क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥


गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥


दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥


दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥


दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन ।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥


ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥


हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥


कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥


जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥


मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥


सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥


अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥


बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥



अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥



कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥


पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥

बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥


हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥


राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥


जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥


तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥


सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥


समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥


कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥


वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥


कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥


कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥


जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥


साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥


लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥


भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥


घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥


अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥


मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥


प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥


प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥


सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥


सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥


छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥


ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥


जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥


जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥


नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥


आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥


जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥


जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥


दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥


बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥


जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥


फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥


दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥


दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥


जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो न समाय ॥ 82 ॥


छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥


जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥


कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥

बूढ़ी काकी- मुंशी प्रेमचंद

गोदान के स्त्री पात्र

Tuesday, April 24, 2012

45 वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार



वर्ष २००९ के लिए 45 वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार किन्दी के लिए संयुक्त रूप से प्रसिद्ध लेखक अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को दिया गया । विगत १३ मार्च को इलाहाबाद संग्रहालय के ब्रजमोहन सभागार में कथाकार श्री अमरकांत को ४५वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार  समारोह के मुख्य अतिथि प्रो. नामवर सिंह द्वारा प्रदान किया गया । पुरस्कार- स्वरूप शॉल,श्रीफल, वाग्देवी की प्रतिमा, प्रशस्ति-पत्र और पाँच लाख की सम्मान राशि भेंट की गई । विशिष्ट अतिथि न्यायमूर्ति श्री प्रेमशंकर गुप्त ने अपने विचार व्यक्त किए । अध्यक्षता श्री आलोक जैन ने की । स्वागत भाषण श्री रविन्द्र कालिया ने दिया । श्रीमती ममता कालिया ने प्रशस्ति-पत्र पढ़ा और संचालन सुश्री श्रुति ने किया ।
सौजन्य से- साहित्य अमृत हिन्दी मासिक पत्रिका अप्रैल २०१२

Monday, April 23, 2012

सवा सेर गेहूँ- मुंशी प्रेमचंद

पूस की रात-मुंशी प्रेमचंद

कफ़न -मुंशी प्रेमचंद

अद्भुत बच्चे

जा रहा था रास्ते से ।
देखा मैंने आँखों से ।
पर विश्वास नहीं हुआ ,
यह सच है या हूँ मैं सपने में ।
सपना इतना बुरा न होगा ।
इनका भी कोई अपना होगा ।
पर इन्हें क्यों ऐसा छोड़ा ।
किसने इनका सपना तोड़ा ।
दिल टूटे ,आती बात समझ में ।
पर सपने टूटे बचपन में ?
कर रहे काम रो-रो कर ,
तब भी खाते मार,
सब गम चुप करके सह जाते ।
किसके हैं यह अद्भुत बच्चे ?

                                     अमित देब ( नवीं ’द’)
                                  केन्द्रीय विद्यालय क्र.१,ईटानगर

Sunday, April 22, 2012

देहात का दृश्य

ऐसा सुनहरा दृश्य मैंने ।
नहीं देखा था इससे पहले ।
चाँद क्या उअर चाँदनी क्या !
सूरज क्या और रोशनी क्या !
सबसे सुनहरा यह दृश्य है ।
क्योंकि यह देहात का दृश्य है ।
दूर-दूर तक है खरिहानी ।
जिसमें फले गेहूँ की बाली ।
पके -पके और पीले-पीले ।
लहराते वे हौले-हौले ।
बीच में हैं चने के पौधे ।
जिनपर मोटे चने हैं बैठे ।
कहीं खड़े हैं आम के पेड़ ।
जिनपर लगे मंजरी के ढ़ेर ।
दूर खड़ा है बरगद एक ।
जहाँ बैठे हैं बच्चे अनेक ।
कोई गा रहा गाना ।
कोई देख रहा सपना ।
कोने पर है महुआ का पेड़ ।
जिसपर बैठे तोते अनेक ।
निसदिन करते टाँय-टाँय वे ।
सबका करते स्वागत वे ।
पुनगी पर है कोयल बैठी ।
वह भी धीरे-धीरे कुहकी ।
ऐसा लगता.......
स्वागत करती वह भी सबका ।
 देखा नहीं था इससे पहले ।
ऐसा सुनहरा दृश्य मैंने ।
इसीलिए तो कहते हैं हम,
कभी न भूलो अपना गाँव ।
क्योंकि यहाँ है प्यार की छाँव ।


                                          प्रियंका सिंह (दसवीं ’द’)
                                       केन्द्रीय विद्यालय क्र.१,ईटानगर



Thursday, April 19, 2012

दूरदर्शन

सभी के घरों में होता है कम से कम एक् दूरदर्शन ,
जिसको होता है अभिनेताओं का बड़ा समर्थन ।
जब् दूरदर्शन किसी के घर् पहली बार आता ,
तो यह सभी का मन मोहित कर ले जाता ।
न जाने होते हैं अन्दर उसके कितने प्रकार के र्ंग रूप ।
आता है इसको रुलाना और ह्ँसाना इंसानों को खूब ।
 जॉन बेयार्ड ने किया है आविष्कार् इसका ,
टी.वी. है नाम अंग्रेजी में जिसका ।
दूर की चीजों को तसवीर् कर सामने लाती ,
सबसे ज्यादा यह् दादा दादियों को ही भाती ।
सुबह को देखते हैं पापा इसमें खबरें ताजा ,
मुझे इसमें कार्टून् देखने में खूब् आता है मजा ।
मरते है अभिनेता इसमें सौ-दोसौ बार,
मगर होते है वो जिन्दा फ़िर से देने दुष्टों को मार।
परीक्षा के समय हम पाते नहीं देख इसका मुख,
तब लगता है मुझे और मेरे दोस्तो को बडा ही दुख।
मगर जब परीक्षा में पूरे अंक है मिलते,
तो यह दबा हुआ दुख  आँसु ओं मे निकलता।
होने पर् खत्म परीक्षा क्या करे और काम,
बैठ जाते इसके सामने लेने खुशी का नाम।
छाती है खुशियाँ घर में फिर से एक बार,
भाती है खुशियाँ सबको कर के दुख को तार।

            सौरभ सरकार(आठवीं द )
              केन्द्रीय विद्यालय नं १ ईटानगर


पानी भरी नदी

पानी भरी नदी,
है झिलमिल सितारों की नदी ।
दूर से देखने पर है चमकती ।
पास से देखने पर है गरजती ।
हम तो नहीं जानते ऐसा क्या है उसमें,
जो कहती है सारी बातें हमसे ।
क्यों लगता है ऐसा देखती है वो हमें ,
बातें नहीं  भी जानते हुए कहती है वो हमें ।
पानी भरी नदी,
है झिलमिल सितारों की नदी ।

अनुशा आर्या ( नौवीं अ)
के.वि.ईटानगर 


Sunday, April 8, 2012

आत्मपरिचय (हरिवंशराय बच्चन)



आत्मपरिचय बच्चन जी के काव्य संग्रह निशा निमंत्रण से ली गई है जो सन्‌ १९३८ में प्रकाशित हुई । प्रस्तुत गीत में बच्चन जी की पूरी काव्य कला झलकती है । मनिष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज से उसका नाता अटूट है ।पूरे गीत में एक विरोधाभाष दिखाई देता है । यथा- मैं जगजीवन का भार लिए फिरता हूँ , फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ ; कवि कहता है कि वह दुनिया का ध्यान किए बिना केवल प्रेम रूपी सुरा का पान करता है । वह सच्चे प्रेम में विश्वास करता है । जबकि दुनिया के लोग इतने स्वार्थी हैं कि जो उनका गुणगान करते हैं दुनिया के लोग उसी को पूछते हैं । लेकिन कवि को यह अपूर्ण संसार यानी यह भौतिक संसार नहीं भाता है इसलिए वह स्वप्नों के संसार में विचरण करता है । कवि का दार्शनिक तब और उजागर होता है जब वह यह कहता है कि दुनिया के सभी ऋषि-मुनि प्रयत्न करके मिट गये पर कोई सत्य जान नहीं पाया इसलिए कवि सीखा ज्ञान भूलाना सीख रहा है - कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना ? नादान वहीं है,हाय, जहाँ पर दाना ! फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे ? मैं सीख रहा हूँ , सीखा ज्ञान भुलाना ! कवि कहता है कि उसके रोने को दुनिया गाना कहती है और जब वह फूट कर रोता है तो उसको छंद का निर्माण कहती है । कवि अपने को एक कवि न मानकर दुनिया का एक नया दीवाना मानता है । और इसी दीवानगी में वह दीवानों का वेश लेकर घूम रहा है साथ ही उसके संदेशों में वह मस्ती है जिसको सुनकर दुनिया झूमने लगती है । यहाँ आकर कवि का गीत पूर्णता को प्राप्त करता है और कवि की साधना सफल होती दिखाई देती है । मई दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ, मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ ; जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए, मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ !