Monday, December 17, 2012
Saturday, December 15, 2012
Monday, October 15, 2012
Wednesday, October 10, 2012
संसदीय राजभाषा समिति की बैठक, केन्द्रीय विद्यालय क्र०1,ईटानगर
केन्द्रीय विद्यालय क्र०1,ईटानगर का संसदीय राजभाषा समिति द्वारा निरीक्षण कार्य दिनांक 08 अक्तूबर 2012 को किया गया जिसमें समिति के सात माननीय सांसदों और चार उच्चाधिकारियों सहित कुल ग्यारह सदस्यों ने भाग लिया । केन्द्रीय विद्यालय संगठन, नई दिल्ली की तरफ से भी कई उच्चाधिकारी सम्मिलित हुए जिनमें
Tuesday, September 18, 2012
Thursday, July 12, 2012
'दो बैलों की कथा' का नाट्य रूपांतरण
कहानी का नाम- दो बैलों की कथा
मूल लेखक- प्रेमचंद
रूपांतरणकर्ता- सबिता कुमारी ( कक्षा नौवीं),
केन्द्रीय विद्यालय संख्या 1, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश
मार्गदर्शक- श्री दीपक कुमार (पी०जी०टी० हिन्दी )
केन्द्रीय विद्यालय संख्या 1, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश
पात्र परिचय-
झूरी - एक किसानझूरी की पत्नी
हीरा और मोती- झूरी के बैल
गया- झूरी का साला
एक छोटी लड़की
एक साँड
दढ़ियल आदमी
कांजीहौस का चौकीदार
कांजीहौस के जानवर- गधा, भैंस, बकरी, घोड़ियाँ आदि
झूरी के गाँव के बच्चे
गया के गाँव के कुछ आदमी
प्रारंभ
Friday, May 11, 2012
अपने अपने अज्ञेय
पिछले वर्ष सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सायन अज्ञेय की जन्म सदी मानाई गई । लगभग पूरे देश में अनेकों गोष्ठियों का आयोजन किया गया । अबतक अज्ञेय पर बहुत लिखा गया है । न जाने कितने शोध हुए है उनके साहित्य पर । अज्ञेय ने प्रयोगवाद और नई कविता को हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठित किया । वे एक अनन्य कवि , उपन्यासकार, यात्रा वृत्तांत और कहानीकार थे । उनके व्यक्तित्व और कृतीत्व पर बृहद प्रकाश डालते हुए प्रसिद्ध विचारक और संपादक श्री ओम थानवी ने एक बृहद ग्रंथ तैयार किया है जिसका शीर्षक है ’अपने अपने अज्ञेय’ । परिअचय के रूप में श्री ओम थानवी के दो शब्द की जगह चार शब्द अत्यंत रोचक है । बहुत सी जानकारियाँ उसमें समाहित हैं । यह संस्मरण उनके वर्षों के परिश्रम का फल है । ग्रंथ के दो भाग हैं और यह ग्रंथ करीब हज़ार पन्नों का है । ग्रंथ का उद्देश्य अज्ञेय के कुछ अनछुए पहलुओं से पाठकों को परिचित कराना है ।
Tuesday, May 8, 2012
Wednesday, May 2, 2012
कुछ कविताएँ - मनंजय प्रताप सिंह
मैं हूँ सिर्फ हरि का
मेरे सिर्फ हरि हैं ,
हरि बिना मेरे न कोई ।
चारो ओर हैं हरि समाए ,
तो क्यों नहीं मैं हरि उच्चारूँ ।
बोल रहे तो बोलो जगवालों,
तुम हो मेरे न कोई ।
हरि बिना सब जग सूना,
हरि मेरे सब कोई ।
मैं सिर्फ़ भजूँ हरि को ,
और भजूँ न किसी को ।
मैं सिर्फ़ हूँ हरि का,
पर हैं हरि सबके ।
जब सब में हैं हरि,
तो क्यों है बैर ।
आपस में प्रेम कर ,
बने अनेक से एक ।
हरि है एक विश्वास,
हरि है एक एहसास।
तो क्यों है निराश ,
जब सब है तुम्हारे पास ।
* * * *
इनके जैसा कोई कहाँ ।
हर तरफ यहाँ वहाँ ।
रह नहीं सकते इनके बिना ।
क्योंकि मुश्किल हो जाए जीना ।
सर पर है आसमाँ ,
धरती है पाँव तले ।
अगर यह नहीं होते तो,
यहाँ कुछ भी ना हिले ।
हर तरफ मौज़ूद हवा ,
चाहे पृथ्वी पर हो जहाँ ।
देख नहीं सकते इसे ,
जाने रहता यह कहाँ ।
और आग की न पूछो ,
कभी यह लहके,कभी यह दहके ।
पर पानी को देखते ही ,
रह जाते सहमे सहमे ॥
* * *
सवाल
एक लड़के से पूछा मैंने
क्या करते हो काम ।
करते हो तो क्यों करते हो ,
बताओ अपना नाम ।
इतने सारे सवाल सुनकर,
उसकी हालत हुई खराब ।
उसने कहा मुझे ,
माफ़ करो ’साब’
मैंने कहा कि सुनाओ मुझे,
अपनी दर्द भरी कहानी ।
किसी और के मुह नहीं ,
सुनाओ अपनी ज़ुबानी ।
सुनकर मेरा सवाल,
आँखे उसकी भर आईं ।
तभी समझ मे मेरे,
यह बात आई ।
हुआ बुरा , बहुत बुरा ,
हुआ है जो आज ।
इसके खिलाफ़ उठानी होगी ,
हमें ही कोई आवाज़ ।
करूँ तो मैं क्या करूँ ,
सोचता रहा यही मैं बात ।
देता नहीं आखिर क्यों,
उनका कोई भी साथ ।
इअन सब के बावज़ूद,
वे करते रहते चुपचाप काम ।
पिया करते हैं आँसू ,
खाया करते हैं गम ।
दी किसने इसे मंजूरी,
किया यह किसने शुरु ।
क्या घर में इनके ,
नहीं था कोई मासूम ।
पर आज यह शान है ,
इस पर इन्हें अभिमान है ।
लज्जा नहीं आती इनको,
समझाऊँ मैं किस किसको ?
मेरे सिर्फ हरि हैं ,
हरि बिना मेरे न कोई ।
चारो ओर हैं हरि समाए ,
तो क्यों नहीं मैं हरि उच्चारूँ ।
बोल रहे तो बोलो जगवालों,
तुम हो मेरे न कोई ।
हरि बिना सब जग सूना,
हरि मेरे सब कोई ।
मैं सिर्फ़ भजूँ हरि को ,
और भजूँ न किसी को ।
मैं सिर्फ़ हूँ हरि का,
पर हैं हरि सबके ।
जब सब में हैं हरि,
तो क्यों है बैर ।
आपस में प्रेम कर ,
बने अनेक से एक ।
हरि है एक विश्वास,
हरि है एक एहसास।
तो क्यों है निराश ,
जब सब है तुम्हारे पास ।
* * * *
इनके जैसा कोई कहाँ
इनके जैसा कोई कहाँ ।
हर तरफ यहाँ वहाँ ।
रह नहीं सकते इनके बिना ।
क्योंकि मुश्किल हो जाए जीना ।
सर पर है आसमाँ ,
धरती है पाँव तले ।
अगर यह नहीं होते तो,
यहाँ कुछ भी ना हिले ।
हर तरफ मौज़ूद हवा ,
चाहे पृथ्वी पर हो जहाँ ।
देख नहीं सकते इसे ,
जाने रहता यह कहाँ ।
और आग की न पूछो ,
कभी यह लहके,कभी यह दहके ।
पर पानी को देखते ही ,
रह जाते सहमे सहमे ॥
* * *
सवाल
एक लड़के से पूछा मैंने
क्या करते हो काम ।
करते हो तो क्यों करते हो ,
बताओ अपना नाम ।
इतने सारे सवाल सुनकर,
उसकी हालत हुई खराब ।
उसने कहा मुझे ,
माफ़ करो ’साब’
मैंने कहा कि सुनाओ मुझे,
अपनी दर्द भरी कहानी ।
किसी और के मुह नहीं ,
सुनाओ अपनी ज़ुबानी ।
सुनकर मेरा सवाल,
आँखे उसकी भर आईं ।
तभी समझ मे मेरे,
यह बात आई ।
हुआ बुरा , बहुत बुरा ,
हुआ है जो आज ।
इसके खिलाफ़ उठानी होगी ,
हमें ही कोई आवाज़ ।
करूँ तो मैं क्या करूँ ,
सोचता रहा यही मैं बात ।
देता नहीं आखिर क्यों,
उनका कोई भी साथ ।
इअन सब के बावज़ूद,
वे करते रहते चुपचाप काम ।
पिया करते हैं आँसू ,
खाया करते हैं गम ।
दी किसने इसे मंजूरी,
किया यह किसने शुरु ।
क्या घर में इनके ,
नहीं था कोई मासूम ।
पर आज यह शान है ,
इस पर इन्हें अभिमान है ।
लज्जा नहीं आती इनको,
समझाऊँ मैं किस किसको ?
Friday, April 27, 2012
प्रेम-पथ हो न सूना/ गोपालदास नीरज
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
क़ब्र-सी मौन धरती पड़ी पाँव परल
शीश पर है कफ़न-सा घिरा आसमाँ,
मौत की राह में, मौत की छाँह में
चल रहा रात-दिन साँस का कारवाँ,
जा रहा हूँ चला, जा रहा हूँ बढ़ा,
पर नहीं ज्ञात है किस जगह हो?
किस जगह पग रुके, किस जगह मगर छुटे
किस जगह शीत हो, किस जगह घाम हो,
मुस्कराए सदा पर धरा इसलिए
जिस जगह मैं झरूँ उस जगह तुम खिलो।
प्रेम-पथ हो नस सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
प्रेम का पंथ सूना अगर हो गया,
रह सकेगी बसी कौन-सी फिर गली?
यदि खिला प्रेम का ही नहीं फूल तो,
कौन है जो हँसे फिर चमन में कली?
प्रेम को ही न जग में मिला मान तो
यह धरा, यह भुवन सिर्फ़ श्मशान है,
आदमी एक चलती हुई लाश है,
और जीना यहाँ एक अपमान है,
आदमी प्यार सीखे कभी इसलिए
रात-दिन मैं ढलूँ, रात-दिन तुम ढलो।
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
एक दिन काल-तम की किसी रात ने
दे दिया था मुझे प्राण का यह दिया,
धार पर यह जला, पार पर यह जला
बार अपना हिया विश्व का तम पिया,
पर चुका जा रहा साँस का स्नेह अब
रोशनी का पथिक चल सकेगा नहीं,
आँधियों के नगर में बिना प्यार के
दीप यह भोर तक जल सकेगा नहीं,
पर चले स्नेह की लौ सदा इसलिए
जिस जगह मैं बुझूँ, उस जगह तुम जलो।
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
रोज़ ही बाग़ में देखता हूँ सुबह,
धूल ने फूल कुछ अधखिले चुन लिए,
रोज़ ही चीख़ता है निशा में गगन-
'क्यों नहीं आज मेरे जले कुछ दीए ?'
इस तरह प्राण! मैं भी यहाँ रोज़ ही,
ढल रहा हूँ किसी बूँद की प्यास में,
जी रहा हूँ धरा पर, मगर लग रहा
कुछ छुपा है कहीं दूर आकाश में,
छिप न पाए कहीं प्यार इसलिए
जिस जगह मैं छिपूँ, उस जगह तुम मिलो।
सौजन्य से- हिन्दी कुंज
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
क़ब्र-सी मौन धरती पड़ी पाँव परल
शीश पर है कफ़न-सा घिरा आसमाँ,
मौत की राह में, मौत की छाँह में
चल रहा रात-दिन साँस का कारवाँ,
जा रहा हूँ चला, जा रहा हूँ बढ़ा,
पर नहीं ज्ञात है किस जगह हो?
किस जगह पग रुके, किस जगह मगर छुटे
किस जगह शीत हो, किस जगह घाम हो,
मुस्कराए सदा पर धरा इसलिए
जिस जगह मैं झरूँ उस जगह तुम खिलो।
प्रेम-पथ हो नस सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
प्रेम का पंथ सूना अगर हो गया,
रह सकेगी बसी कौन-सी फिर गली?
यदि खिला प्रेम का ही नहीं फूल तो,
कौन है जो हँसे फिर चमन में कली?
प्रेम को ही न जग में मिला मान तो
यह धरा, यह भुवन सिर्फ़ श्मशान है,
आदमी एक चलती हुई लाश है,
और जीना यहाँ एक अपमान है,
आदमी प्यार सीखे कभी इसलिए
रात-दिन मैं ढलूँ, रात-दिन तुम ढलो।
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
एक दिन काल-तम की किसी रात ने
दे दिया था मुझे प्राण का यह दिया,
धार पर यह जला, पार पर यह जला
बार अपना हिया विश्व का तम पिया,
पर चुका जा रहा साँस का स्नेह अब
रोशनी का पथिक चल सकेगा नहीं,
आँधियों के नगर में बिना प्यार के
दीप यह भोर तक जल सकेगा नहीं,
पर चले स्नेह की लौ सदा इसलिए
जिस जगह मैं बुझूँ, उस जगह तुम जलो।
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
रोज़ ही बाग़ में देखता हूँ सुबह,
धूल ने फूल कुछ अधखिले चुन लिए,
रोज़ ही चीख़ता है निशा में गगन-
'क्यों नहीं आज मेरे जले कुछ दीए ?'
इस तरह प्राण! मैं भी यहाँ रोज़ ही,
ढल रहा हूँ किसी बूँद की प्यास में,
जी रहा हूँ धरा पर, मगर लग रहा
कुछ छुपा है कहीं दूर आकाश में,
छिप न पाए कहीं प्यार इसलिए
जिस जगह मैं छिपूँ, उस जगह तुम मिलो।
सौजन्य से- हिन्दी कुंज
कुछ सपनों के मर जाने से/गोपालदास ’नीरज’
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ लुटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है.
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है.
सपना क्या है, नयन सेज पर सोया हुई आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है.
और टूटना है उसका ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है.
माला बिखर गई तो क्या है, ख़ुद ही हल हो गई समस्या
आँसू ग़र नीलाम हुए तो, समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फ़टी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आंगन नहीं मरा करता है.
आँसू ग़र नीलाम हुए तो, समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फ़टी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आंगन नहीं मरा करता है.
लाखों बार गगरियाँ फूटीं, शिक़न नहीं आई पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों
लाख करे पतझड़ क़ोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है.
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों
लाख करे पतझड़ क़ोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है.
लूट लिया माली ने उपवन, लुटी न लेकिन गंध फूल की
तूफ़ानों तक ने छेड़ा पर, खिड़की बंद न हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है.
तूफ़ानों तक ने छेड़ा पर, खिड़की बंद न हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है.
सौजन्य से -हिन्दी कुंज
Wednesday, April 25, 2012
कबीर के दोहे
दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय ।
जो सुख मे सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥ 2 ॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥
कबीरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥
दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥
दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥
दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन ।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥
ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥
मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥
अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥
कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥
पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥
बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥
हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥
राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥
साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥
लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥
प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥
दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥
दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो न समाय ॥ 82 ॥
छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥
जो सुख मे सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥ 2 ॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥
कबीरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥
दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥
दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥
दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन ।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥
ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥
मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥
अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥
कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥
पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥
बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥
हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥
राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥
साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥
लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥
प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥
दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥
दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो न समाय ॥ 82 ॥
छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥
Tuesday, April 24, 2012
45 वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार
वर्ष २००९ के लिए 45 वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार किन्दी के लिए संयुक्त रूप से प्रसिद्ध लेखक अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को दिया गया । विगत १३ मार्च को इलाहाबाद संग्रहालय के ब्रजमोहन सभागार में कथाकार श्री अमरकांत को ४५वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह के मुख्य अतिथि प्रो. नामवर सिंह द्वारा प्रदान किया गया । पुरस्कार- स्वरूप शॉल,श्रीफल, वाग्देवी की प्रतिमा, प्रशस्ति-पत्र और पाँच लाख की सम्मान राशि भेंट की गई । विशिष्ट अतिथि न्यायमूर्ति श्री प्रेमशंकर गुप्त ने अपने विचार व्यक्त किए । अध्यक्षता श्री आलोक जैन ने की । स्वागत भाषण श्री रविन्द्र कालिया ने दिया । श्रीमती ममता कालिया ने प्रशस्ति-पत्र पढ़ा और संचालन सुश्री श्रुति ने किया ।
सौजन्य से- साहित्य अमृत हिन्दी मासिक पत्रिका अप्रैल २०१२
Monday, April 23, 2012
अद्भुत बच्चे
जा रहा था रास्ते से ।
देखा मैंने आँखों से ।
पर विश्वास नहीं हुआ ,
यह सच है या हूँ मैं सपने में ।
सपना इतना बुरा न होगा ।
इनका भी कोई अपना होगा ।
पर इन्हें क्यों ऐसा छोड़ा ।
किसने इनका सपना तोड़ा ।
दिल टूटे ,आती बात समझ में ।
पर सपने टूटे बचपन में ?
कर रहे काम रो-रो कर ,
तब भी खाते मार,
सब गम चुप करके सह जाते ।
किसके हैं यह अद्भुत बच्चे ?
अमित देब ( नवीं ’द’)
केन्द्रीय विद्यालय क्र.१,ईटानगर
देखा मैंने आँखों से ।
पर विश्वास नहीं हुआ ,
यह सच है या हूँ मैं सपने में ।
सपना इतना बुरा न होगा ।
इनका भी कोई अपना होगा ।
पर इन्हें क्यों ऐसा छोड़ा ।
किसने इनका सपना तोड़ा ।
दिल टूटे ,आती बात समझ में ।
पर सपने टूटे बचपन में ?
कर रहे काम रो-रो कर ,
तब भी खाते मार,
सब गम चुप करके सह जाते ।
किसके हैं यह अद्भुत बच्चे ?
अमित देब ( नवीं ’द’)
केन्द्रीय विद्यालय क्र.१,ईटानगर
Sunday, April 22, 2012
देहात का दृश्य
ऐसा सुनहरा दृश्य मैंने ।
नहीं देखा था इससे पहले ।
चाँद क्या उअर चाँदनी क्या !
सूरज क्या और रोशनी क्या !
सबसे सुनहरा यह दृश्य है ।
क्योंकि यह देहात का दृश्य है ।
दूर-दूर तक है खरिहानी ।
जिसमें फले गेहूँ की बाली ।
पके -पके और पीले-पीले ।
लहराते वे हौले-हौले ।
बीच में हैं चने के पौधे ।
जिनपर मोटे चने हैं बैठे ।
कहीं खड़े हैं आम के पेड़ ।
जिनपर लगे मंजरी के ढ़ेर ।
दूर खड़ा है बरगद एक ।
जहाँ बैठे हैं बच्चे अनेक ।
कोई गा रहा गाना ।
कोई देख रहा सपना ।
कोने पर है महुआ का पेड़ ।
जिसपर बैठे तोते अनेक ।
निसदिन करते टाँय-टाँय वे ।
सबका करते स्वागत वे ।
पुनगी पर है कोयल बैठी ।
वह भी धीरे-धीरे कुहकी ।
ऐसा लगता.......
स्वागत करती वह भी सबका ।
देखा नहीं था इससे पहले ।
ऐसा सुनहरा दृश्य मैंने ।
इसीलिए तो कहते हैं हम,
कभी न भूलो अपना गाँव ।
क्योंकि यहाँ है प्यार की छाँव ।
प्रियंका सिंह (दसवीं ’द’)
केन्द्रीय विद्यालय क्र.१,ईटानगर
नहीं देखा था इससे पहले ।
चाँद क्या उअर चाँदनी क्या !
सूरज क्या और रोशनी क्या !
सबसे सुनहरा यह दृश्य है ।
क्योंकि यह देहात का दृश्य है ।
दूर-दूर तक है खरिहानी ।
जिसमें फले गेहूँ की बाली ।
पके -पके और पीले-पीले ।
लहराते वे हौले-हौले ।
बीच में हैं चने के पौधे ।
जिनपर मोटे चने हैं बैठे ।
कहीं खड़े हैं आम के पेड़ ।
जिनपर लगे मंजरी के ढ़ेर ।
दूर खड़ा है बरगद एक ।
जहाँ बैठे हैं बच्चे अनेक ।
कोई गा रहा गाना ।
कोई देख रहा सपना ।
कोने पर है महुआ का पेड़ ।
जिसपर बैठे तोते अनेक ।
निसदिन करते टाँय-टाँय वे ।
सबका करते स्वागत वे ।
पुनगी पर है कोयल बैठी ।
वह भी धीरे-धीरे कुहकी ।
ऐसा लगता.......
स्वागत करती वह भी सबका ।
देखा नहीं था इससे पहले ।
ऐसा सुनहरा दृश्य मैंने ।
इसीलिए तो कहते हैं हम,
कभी न भूलो अपना गाँव ।
क्योंकि यहाँ है प्यार की छाँव ।
प्रियंका सिंह (दसवीं ’द’)
केन्द्रीय विद्यालय क्र.१,ईटानगर
Thursday, April 19, 2012
दूरदर्शन
सभी के घरों में होता है कम से कम एक् दूरदर्शन ,
जिसको होता है अभिनेताओं का बड़ा समर्थन ।
जब् दूरदर्शन किसी के घर् पहली बार आता ,
तो यह सभी का मन मोहित कर ले जाता ।
न जाने होते हैं अन्दर उसके कितने प्रकार के र्ंग रूप ।
आता है इसको रुलाना और ह्ँसाना इंसानों को खूब ।
जॉन बेयार्ड ने किया है आविष्कार् इसका ,
टी.वी. है नाम अंग्रेजी में जिसका ।
दूर की चीजों को तसवीर् कर सामने लाती ,
सबसे ज्यादा यह् दादा दादियों को ही भाती ।
सुबह को देखते हैं पापा इसमें खबरें ताजा ,
मुझे इसमें कार्टून् देखने में खूब् आता है मजा ।
मरते है अभिनेता इसमें सौ-दोसौ बार,
मगर होते है वो जिन्दा फ़िर से देने दुष्टों को मार।
परीक्षा के समय हम पाते नहीं देख इसका मुख,
तब लगता है मुझे और मेरे दोस्तो को बडा ही दुख।
मगर जब परीक्षा में पूरे अंक है मिलते,
तो यह दबा हुआ दुख आँसु ओं मे निकलता।
होने पर् खत्म परीक्षा क्या करे और काम,
बैठ जाते इसके सामने लेने खुशी का नाम।
छाती है खुशियाँ घर में फिर से एक बार,
भाती है खुशियाँ सबको कर के दुख को तार।
सौरभ सरकार(आठवीं द )
केन्द्रीय विद्यालय नं १ ईटानगर
जॉन बेयार्ड ने किया है आविष्कार् इसका ,
टी.वी. है नाम अंग्रेजी में जिसका ।
दूर की चीजों को तसवीर् कर सामने लाती ,
सबसे ज्यादा यह् दादा दादियों को ही भाती ।
सुबह को देखते हैं पापा इसमें खबरें ताजा ,
मुझे इसमें कार्टून् देखने में खूब् आता है मजा ।
मरते है अभिनेता इसमें सौ-दोसौ बार,
मगर होते है वो जिन्दा फ़िर से देने दुष्टों को मार।
परीक्षा के समय हम पाते नहीं देख इसका मुख,
तब लगता है मुझे और मेरे दोस्तो को बडा ही दुख।
मगर जब परीक्षा में पूरे अंक है मिलते,
तो यह दबा हुआ दुख आँसु ओं मे निकलता।
होने पर् खत्म परीक्षा क्या करे और काम,
बैठ जाते इसके सामने लेने खुशी का नाम।
छाती है खुशियाँ घर में फिर से एक बार,
भाती है खुशियाँ सबको कर के दुख को तार।
सौरभ सरकार(आठवीं द )
केन्द्रीय विद्यालय नं १ ईटानगर
पानी भरी नदी
पानी भरी नदी,
है झिलमिल सितारों की नदी ।
दूर से देखने पर है चमकती ।
पास से देखने पर है गरजती ।
हम तो नहीं जानते ऐसा क्या है उसमें,
जो कहती है सारी बातें हमसे ।
क्यों लगता है ऐसा देखती है वो हमें ,
बातें नहीं भी जानते हुए कहती है वो हमें ।
पानी भरी नदी,
है झिलमिल सितारों की नदी ।
अनुशा आर्या ( नौवीं अ)
के.वि.ईटानगर
है झिलमिल सितारों की नदी ।
दूर से देखने पर है चमकती ।
पास से देखने पर है गरजती ।
हम तो नहीं जानते ऐसा क्या है उसमें,
जो कहती है सारी बातें हमसे ।
क्यों लगता है ऐसा देखती है वो हमें ,
बातें नहीं भी जानते हुए कहती है वो हमें ।
पानी भरी नदी,
है झिलमिल सितारों की नदी ।
अनुशा आर्या ( नौवीं अ)
के.वि.ईटानगर
Sunday, April 8, 2012
आत्मपरिचय (हरिवंशराय बच्चन)
आत्मपरिचय बच्चन जी के काव्य संग्रह निशा निमंत्रण से ली गई है जो सन् १९३८ में प्रकाशित हुई । प्रस्तुत गीत में बच्चन जी की पूरी काव्य कला झलकती है । मनिष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज से उसका नाता अटूट है ।पूरे गीत में एक विरोधाभाष दिखाई देता है । यथा- मैं जगजीवन का भार लिए फिरता हूँ , फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ ; कवि कहता है कि वह दुनिया का ध्यान किए बिना केवल प्रेम रूपी सुरा का पान करता है । वह सच्चे प्रेम में विश्वास करता है । जबकि दुनिया के लोग इतने स्वार्थी हैं कि जो उनका गुणगान करते हैं दुनिया के लोग उसी को पूछते हैं । लेकिन कवि को यह अपूर्ण संसार यानी यह भौतिक संसार नहीं भाता है इसलिए वह स्वप्नों के संसार में विचरण करता है । कवि का दार्शनिक तब और उजागर होता है जब वह यह कहता है कि दुनिया के सभी ऋषि-मुनि प्रयत्न करके मिट गये पर कोई सत्य जान नहीं पाया इसलिए कवि सीखा ज्ञान भूलाना सीख रहा है - कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना ? नादान वहीं है,हाय, जहाँ पर दाना ! फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे ? मैं सीख रहा हूँ , सीखा ज्ञान भुलाना ! कवि कहता है कि उसके रोने को दुनिया गाना कहती है और जब वह फूट कर रोता है तो उसको छंद का निर्माण कहती है । कवि अपने को एक कवि न मानकर दुनिया का एक नया दीवाना मानता है । और इसी दीवानगी में वह दीवानों का वेश लेकर घूम रहा है साथ ही उसके संदेशों में वह मस्ती है जिसको सुनकर दुनिया झूमने लगती है । यहाँ आकर कवि का गीत पूर्णता को प्राप्त करता है और कवि की साधना सफल होती दिखाई देती है । मई दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ, मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ ; जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए, मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ !
Saturday, April 7, 2012
Tuesday, March 20, 2012
नम आँखें
बोलती
नहीं ,
पर
सब बतलाती हैं ,
नम
आँखें सब कह जाती हैं ।
पता
नहीं है नम का,
चीर
जिगर को नहीं सकते ,
दिल
दर्द से मचलता है,
आँखों
में यह झलकता है ,
आईना
है, सब दिखलाता है,
ये
नम आँखे , ये नम आँखे !
न तेरी,
न मेरी
ये
दासता है पूरे ब्रहमांड की
नम
आँखों की , नम आँखों की !!
कु० जोमियर
जीनी
Friday, March 16, 2012
साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्तकर्ता
सन् 1954 में अपनी स्थापना के समय से ही साहित्य अकादमी
प्रतिवर्ष भारत की अपने द्वारा मान्यता प्रदत्त प्रमुख भाषाओं में से
प्रत्येक में प्रकाशित सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक कृति को पुरस्कार प्रदान
करती है। पहली बार ये पुरस्कार सन् 1955 में दिए गए।
पुरस्कार की स्थापना के समय पुरस्कार राशि 5,000/- रुपए थी, जो सन् 1983 में ब़ढा कर 10,000/- रुपए कर दी गई और सन् 1988 में ब़ढा कर इसे 25,000/- रुपए कर दिया गया। सन् 2001 से यह राशि 40,000/- रुपए की गई थी। सन् 2003 से यह राशि 50,000/- रुपए कर दी गई है।
वर्ष 2010 में 20 दिसंबर को साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा की गई। इस बार तीन कहानिकारों, चार उपन्यासकारों 8 कवियों और सात समालोचकों को यह पुरस्कार प्रदान किया गया।
सौजन्य से गुगल विकिपीडिया
पुरस्कार की स्थापना के समय पुरस्कार राशि 5,000/- रुपए थी, जो सन् 1983 में ब़ढा कर 10,000/- रुपए कर दी गई और सन् 1988 में ब़ढा कर इसे 25,000/- रुपए कर दिया गया। सन् 2001 से यह राशि 40,000/- रुपए की गई थी। सन् 2003 से यह राशि 50,000/- रुपए कर दी गई है।
वर्ष 2010 में 20 दिसंबर को साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा की गई। इस बार तीन कहानिकारों, चार उपन्यासकारों 8 कवियों और सात समालोचकों को यह पुरस्कार प्रदान किया गया।
- उदय प्रकाश (हिंदी) कहानी (मोहनदास)
- मनोज (डोगरी) कहानी
- नांजिल नाडन (तमिल) कहानी
- अरविन्द उजीर (बोडो) कविता
- अरूण साखरदांडे (कोंकणी) कविता
- गोपी नारायण प्रधान (नेपाली) कविता
- वनीता (पंजाबी) कविता
- मंगत बादल (राजस्थानी) कविता
- मिथिला प्रसाद त्रिपाठी (संस्कृत) कविता
- लक्ष्मण दुबे (सिन्धी) कविता
- शीन काफ निजाम (उर्दू) कविता
- बानी बसु (बांग्ला) उपन्यास
- एस्थर डेविड (अंग्रेजी) उपन्यास
- धीरेन्द्र मेहता (गुजराती) उपन्यास
- एम. बोरकन्या (मणिपुरी)
- केशदा महन्त (असमिया) समालोचना
- बशर बशीर (कश्मीरी) समालोचना
- रहमत तरिकरे (कन्नड़) समालोचना
- अशोक रा. केलकर (मराठी) समालोचना
- 1955- माखनलाल चतुर्वेदी/ हिम तरंगिणी (काव्य)
- 1956- वासुदेव शरण अग्रवाल /पद्मावत संजीवनी व्याख्या (व्याख्या)
- 1957 आचार्य नरेन्द्र देव /बौध धर्म दर्शन (दर्शन)
- 1958- राहुल सांकृत्यायन /मध्य एशिया का इतिहास (इतिहास)
- 1959- रामधारी सिंह 'दिनकर' /संस्कृति के चार अध्याय (भारतीय संस्कृति)
- 1960- सुमित्रानंदन पंत /कला और बूढ़ा चाँद (काव्य)
- 1961- भगवतीचरण वर्मा /भूले बिसरे चित्र (उपन्यास)
- 1962- पुरस्कार नहीं दिया गया
- 1963- अमृत राय प्रेमचंद: कलम का सिपाही (जीवनी)
- 1964- अज्ञेय आँगन के पार द्वार (काव्य)
- 1965- डॉ. नगेन्द्र रस सिद्धांत (विवेचना) (विवेचना)
- 1966- जैनेन्द्र कुमार/ मुक्तिबोध (उपन्यास)
- 1967- अमृतलाल नागर /अमृत और विष (उपन्यास)
- 1968- हरिवंशराय बच्चन /दो चट्टाने (काव्य)
- 1969- श्रीलाल शुक्ल/ राग दरबारी (उपन्यास)
- 1970- रामविलास शर्मा /निराला की साहित्य साधना (जीवनी)
- 1971- नामवर सिंह कविता के नये प्रतिमान (साहित्यिक आलोचना)
- 1972- भवानीप्रसाद मिश्र बुनी हुई रस्सी (काव्य)
- 1973- हज़ारी प्रसाद द्विवेदी /आलोक पर्व (निबंध)
- 1974- शिवमंगल सिंह सुमन /मिट्टी की बारात (काव्य)
- 1975- भीष्म साहनी/ तमस (उपन्यास)
- 1976- यशपाल/ मेरी तेरी उसकी बात (उपन्यास)
- 1977- शमशेर बहादुर सिंह/ चुका भी हूँ मैं नहीं (काव्य)
- 1978- भारतभूषण अग्रवाल /उतना वह सूरज है (काव्य)
- 1979- धूमिल /कल सुनना मुझे (काव्य)
- 1980- कृष्णा सोबती/ ज़िन्दगीनामा - ज़िन्दा रुख़ (उपन्यास)
- 1981- त्रिलोचन /ताप के ताये हुए दिन (काव्य)
- 1982- हरिशंकर परसाईं/ विकलांग श्रद्धा का दौर (व्यंग)
- 1983- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना/ खूँटियों पर टँगे लोग (काव्य)
- 1984- रघुवीर सहाय /लोग भूल गये हैं (काव्य)
- 1985- निर्मल वर्मा /कव्वे और काला पानी (कहानी संग्रह)
- 1986- केदारनाथ अग्रवाल/ अपूर्वा (काव्य)
- 1987- श्रीकांत वर्मा/ मगध (काव्य)
- 1988- नरेश मेहता/ अरण्या (काव्य)
- 1989- केदारनाथ सिंह अकाल में सारस (काव्य)
- 1990- शिवप्रसाद सिंह/ नीला चाँद (उपन्यास)
- 1991- गिरिजाकुमार माथुर/ मैं वक़्त के हूँ सामने (काव्य)
- 1992- गिरिराज किशोर /ढाई घर (उपन्यास)
- 1993- विष्णु प्रभाकर /अर्धनारीश्वर (उपन्यास)
- 1994- अशोक वाजपेयी /कहीं नहीं वहीं (काव्य)
- 1995- कुंवर नारायण /कोई दूसरा नहीं (काव्य)
- 1996- सुरेन्द्र वर्मा/ मुझे चाँद चाहिये (उपन्यास)
- 1997- लीलाधर जगूड़ी /अनुभव के आकाश में चांद (काव्य)
- 1998- अरुण कमल/ नये इलाके में (काव्य)
- 1999- विनोद कुमार शुक्ल /दीवार में एक खिड़की रहती थी (उपन्यास)
- 2000- मंगलेश डबराल /हम जो देखते हैं (काव्य)
- 2001- अलका सरावगी / कलिकथा वाया बाईपास (उपन्यास)
- 2002- राजेश जोशी/ दो पंक्तियों के बीच (काव्य)
- 2003- कमलेश्वर/ कितने पाकिस्तान (उपन्यास)
- 2004- वीरेन डंगवाल /दुष्चक्र में सृष्टा (काव्य)
- 2005- मनोहर श्याम जोशी/ क्याप (उपन्यास)
- 2006- ज्ञानेन्द्रपति/ संशयात्मा (काव्य)
- 2007- अमरकांत/ इन्हीं हथियारों से (उपन्यास)
- 2008- गोविन्द मिश्र /कोहरे में कैद रंग (उपन्यास)
- 2009- कैलाश वाजपेयी /हवा में हस्ताक्षर (काव्य)
- 2010- उदय प्रकाश/ मोहनदास (कहानी)
सौजन्य से गुगल विकिपीडिया
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्तकर्ता
| ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। भारत का कोई भी नागरिक जो आठवीं अनुसूची
में बताई गई २२ भाषाओं में से किसी भाषा में लिखता हो इस पुरस्कार के
योग्य है। पुरस्कार में पांच लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य
प्रतिमा दी जाती है। १९६५ में १ लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ
हुए इस पुरस्कार को २००५ में ७ लाख रुपए कर दिया गया। २००५ के लिए चुने गए
हिन्दी साहित्यकार कुंवर नारायण पहले व्यक्ति थें जिन्हें ७ लाख रुपए का
ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार १९६५ में मलयालम लेखक जी शंकर कुरुप को प्रदान किया गया था। उस समय पुरस्कार की धनराशि १ लाख रुपए थी। १९८२ तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था। लेकिन इसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। अब तक हिन्दी तथा कन्नड़
भाषा के लेखक सबसे अधिक सात बार यह पुरस्कार पा चुके हैं। यह पुरस्कार
बांग्ला को ५ बार, मलयालम को ४ बार, उड़िया, उर्दू और गुजराती को तीन-तीन
बार, असमिया, मराठी, तेलुगू, पंजाबी और तमिल को दो-दो बार मिल चुका है। २२ मई १९६१ को भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक श्री साहू शांति प्रसाद जैन के पचासवें जन्म दिवस के अवसर पर उनके परिवार के सदस्यों के मन में यह विचार आया कि साहित्यिक या सांस्कृतिक क्षेत्र में कोई ऐसा महत्वपूर्ण कार्य किया जाए जो राष्ट्रीय गौरव तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिमान के अनुरूप हो। इसी विचार के अंतर्गत १६ सितंबर १९६१ को भारतीय ज्ञानपीठ की संस्थापक अध्यक्ष श्रीमती रमा जैन ने न्यास की एक गोष्ठी में इस पुरस्कार का प्रस्ताव रखा। २ अप्रैल १९६२ को दिल्ली में भारतीय ज्ञानपीठ और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संयुक्त तत्त्वावधान में देश की सभी भाषाओं के ३०० मूर्धन्य विद्वानों ने एक गोष्ठी में इस विषय पर विचार किया। इस गोष्ठी के दो सत्रों की अध्यक्षता डॉ वी राघवन और श्री भगवती चरण वर्मा ने की और इसका संचालन डॉ.धर्मवीर भारती ने किया। इस गोष्ठी में काका कालेलकर, हरेकृष्ण मेहताब, निसीम इजेकिल, डॉ. सुनीति कुमार चैटर्जी, डॉ. मुल्कराज आनंद, सुरेंद्र मोहंती, देवेश दास, सियारामशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, उदयशंकर भट्ट, जगदीशचंद्र माथुर, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. बी.आर.बेंद्रे, जैनेंद्र कुमार, मन्मथनाथ गुप्त, लक्ष्मीचंद्र जैन आदि प्रख्यात विद्वानों ने भाग लिया। इस पुरस्कार के स्वरूप का निर्धारण करने के लिए गोष्ठियाँ होती रहीं और १९६५ में पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार का निर्णय लिया गया। |
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| सौजन्य से गुगल विकिपीडिया |
Wednesday, March 14, 2012
व्यास सम्मान से सम्मानित साहित्यकार
- २०११-प्रो.रामदरश मिश्र (आम के पत्ते काव्य संग्रह)
- २०१०- प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी (फिर भी कुछ रह जाएगा)
- २००९- अमर कांत (इन्हीं हथियारों से)
- २००८ - एक कहानी यह भी मन्नू भंडारी की कृति[1]
- २००७ - समय सरगम कृष्णा सोबती की कृति[2]
- २००६ - कविता का अर्थात परमानंद श्रीवास्तव[3]
- २००५ - कथा सरित्सागर चंद्रकांता का उपन्यास[4]
- २००४ - कठगुलाब मृदुला गर्ग का उपन्यास[5]
- २००३ - आवां चित्रा मुद्गल का उपन्यास[6]
- २००२ - पृथ्वी का कृष्णपक्ष कैलाश बाजपेजी की कृति[7]
- २००१ - आलोचना का पक्ष रमेश चंद्र शाह[8]
- २००० - पहला गिरमिटिया गिरिराज किशोर का उपन्यास[9]
- १९९९ - बिसरामपुर का संत श्रीलाल शुक्ल की कृति[10]
- १९९८ - पाँच आँगनों वाला घर गोविन्द मिश्र की कृति[11]
- १९९७ - केदारनाथ सिंह
- १९९६ - हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास प्रो. राम स्वरूप चतुर्वेदी की कृति।
- १९९५ - कोई दूसरा नहीं कुँवर नारायण की कृति[12]
- १९९४ - अंधायुग धर्मवीर भारती की कृति[11]
- १९९३ -गिरिजाकुमार माथुर[13]
- १९९२ - नीला चाँद डॉ. शिव प्रसाद सिंह
- १९९१ - भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी रामविलास शर्मा[14]
- सौजन्य से गुगल विकिपीडिया
Tuesday, March 13, 2012
चूहे और बिल्लियाँ
चूहे और बिल्लियां
चूहे और बिल्ली प्रागैतिहासिक
काल से मानव-कौतूहल का विषय रहे हैं। हालांकि हमारी सभ्यता एवं संस्कृति में स्थान
तो चूहे एवं बिल्ली दोनों को मिला है, लेकिन चूहों को बिल्लियों से अधिक महत्त्व मिला
है। यह एक अजीबोगरीब विरोधाभास है। वैसे आर्थिक दृष्टिकोण से बिल्ली मनुष्य की दोस्त
होनी चाहिए थी एवं चूहे दुश्मन ! परंतु सांस्कृतिक हकीकत इसके धुर विपरीत है। पता नहीं,
गणेशजी ने चूहे में ऐसी क्या महानता देखी कि पुष्पक विमान जैसी आरामदेह सवारियां त्यागकर
चूहे को अपना ऑफिशियल वाहन घोषित कर दिया। कई बार यह शक होता है कि भांग के नशे में
उन्हें कोई चूहा हाथी जैसा विशालकाय दिखा होगा और एक बार मुंह से निकलने पर चूहा गणेशजी
के पैरों में लिपट गया होगा–‘महाराज मैं जैसा भी हूं, आपके आशीर्वाद से आपका भार भी
उठा लूंगा। आप स्वयं मुझे अपना वाहन स्वीकार कर चुके हैं। अब मैं आपके अतिरिक्त किसी
को भी अपने ऊपर सवार नहीं होने दूंगा और जन्म-जन्मांतर तक आप ही की सेवा में रहूंगा।’
हो सकता है, चालाक चूहे ने गोबर गणेशजी को धमकी भी दे दी हो कि हे भगवान, यदि आप अपनी
बात से हटे तो मैं आत्महत्या कर लूंगा ! और वे दया खा गए हों।
एक कारण और हो सकता है चूहे को वाहन रूप में गणेशजी द्वारा स्वीकार किए जाने के पक्ष में। संभव है कि प्राचीनकाल में, जब गणेशजी का जन्म हुआ था, तब बिल्लियां न रही हों, तथा उनकी उत्पत्ति काफी समय बाद द्वापर या कलियुग में हुई हो। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जहां बिल्लियां नहीं होती, वहां के चूहे बिल्ली से भी ज्यादा तगड़े हो जाते हैं। निश्चय ही सतयुग के चूहे वर्तमान चूहों से काफी हृष्ट-पुष्ट रहे होंगे। दरअसल आसपास बिल्ली की उपस्थिति चूहों को डायटिंग के लिए मजबूर करती है। यदि बिल्ली वाले घर में चूहे बिना डायटिंग किए दिन-रात जमकर खाते रहें, तो वह अपने मोटापे के कारण तेज भागने में सफल नहीं होंगे। यही कारण है कि बिल्लियों के डर से चूहे भी वैसे ही भयभीत रहते हैं, जैसे मोटापे से डरने वाली सुंदर, छरहरी महिलाएं ! बिल्लियों के रहते चूहों को डर-डरकर जीना पड़ता है; इसीलिए दुबले-पतले घरेलू चूहों को देखकर अनायास ही यह शक होना स्वाभाविक है कि चूहे गणेशजी का वजन कैसे उठाते होंगे ?
खैर, यह चूहे जानें और गणेशजी कि वे कैसे आपस में सामंजस्य बिठाते हैं। यह दोनों के बीच का पर्सनल मामला है। बहरहाल हमें तो यही लगता है कि पौराणिक काल में चूहे लगभग हाथी के साइज के ही होते होंगे, तभी विशालकाय गणेशजी उनकी सवारी कर पाते होंगे। यूं थोड़े उन्नीस-बीस जोड़े तो बहुत से पति-पत्नियों के भी होते हैं। हमारे पड़ोसी शर्माजी तो चूहों से भी हल्के कॉकरोची काया के हैं, फिर भी बेचारे तीस-पैंतीस साल से गजगामिनी मिसेज शर्मा को ढो रहे हैं, हालांकि उनके पास एक अदद खटारा स्कूटर है।
मेरे एक अनन्य मित्र हैं। वह प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्य वेद, उपनिषद् और पुराण आदि के मुझसे कई गुणा बड़े जानकार हैं। उनके मतानुसार, गणेशजी यूं ही तैंतीस करोड़ देवताओं में सबसे बुद्धिमान नहीं मान लिए गए। वे समस्त कार्यों में अपनी विलक्षण बुद्धिमत्ता का परिचय देते थे। उनका मानना है कि गणेशजी ने सब जांच-परखकर ही चूहे को अपना वाहन चुना है। एक तो चूहे हर गांव, शहर, प्रदेश, देश एवं समस्त ब्रह्मांड में मिलते हैं। अतः जहां भी जाओ, वहां सवारी का इतंजार नहीं करना पड़ता। दुनिया-भर के एयरपोर्ट व रेलवे स्टेशनों से लेकर जंगल एवं खेतों तक में एक आवाज पर हजारों चूहें दौड़कर आ जाते हैं। संसार में इतनी सर्वसुलभ उपलब्धता शायद ही किसी अन्य वाहन की होगी। इसके अतिरिक्त चूहे के रख-रखाव का खर्च भी नगण्य है। हाथी जैसा भारी-भरकम वाहन बांधने पर किसी भी रईस का साल दो साल में दीवाला निकल सकता है। इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े शहंशाह भी हाथियों की फौज बांधकर कंगाली के कगार पर पहुंच गए थे। यह भी प्रामाणिक पौराणिक सत्य है कि इंद्र की आय का एक बड़ा हिस्सा अकेले ‘ऐरावत’ की मेंटेनेंस पर खर्च होता है। संभवतः यही सब देखकर गणेशजी ने सोच-समझकर चूहे का चुनाव किया होगा, ताकि जहां जाओ, रात होते ही अपने प्रिय वाहन को किसी के भी खेत, गोदाम या घर में छोड़ दो। वहीं घुसकर कागज, कपड़ा रोटी, चावल जो भी मिले, वही खा-पीकर पल जाता है चूहा। न चारे की व्यवस्था करने की जरूरत और न खली-सानी की मशक्कत। महाबदमाश चूहों के इन्हीं सद्गुणों पर गणेशजी मुग्ध हुए होंगे।
चूहों की तुलना में बिल्लियां उतनी भाग्यशाली कभी नहीं रहीं। चूहे प्लेग की महामारी फैलाते हैं, यह सर्वविदित वैज्ञानिक सत्य है, फिर भी उनकी किस्मत देखिए कि वे न केवल गणेशजी की सवारी हैं, बल्कि बीकानेर (राजस्थान) स्थित करणी माता के मंदिर में बड़े श्रद्धाभाव से पूजा भी की जाती है चूहों की। यह सब मौज-मस्ती केवल गणेशजी की बदौलत ही है। उन्हें गणेशजी का आशीर्वाद न होता तो आज चूहों का हमारे यहां भी वियतनाम और चीन जैसा हश्र होता, जहां चूहा दिखते ही उसे मारकर स्वादिष्ट सूप बनाकर पी जाते हैं, और चूहा मारने पर वहां तो प्रति मृत चूहा इनाम तक की व्यवस्था है।
अपने यहां की बिल्लियां किस्मत की कतई धनी नहीं हैं। विदेशों में फिर भी बिल्लियों को अच्छी नजर से देखा जाता है, मगर अपने यहां बिल्लियों को वैसा सम्मान नहीं मिलता, जैसा अन्य जानवरों एवं पक्षियों को मिलता है। बड़े देवताओं की तो खैर छोड़ो, किसी लोकल अथवा छुटभैये देवता ऩे भी बिल्ली को अपना वाहन नहीं बनाया। यह बिल्ली का दुर्भाग्य ही है कि असंख्य गुणों की खान होते हुए भी उस पर कभी किसी देवता की कृपादृष्टि नहीं पड़ी। बिल्ली की जाति का ही शेर–जो रिश्ते में बिल्ली का भानजा है (बिल्ली शेर की मौसी है, ऐसा हमारी कई किताबों में लिखा है)–मां दुर्गा की सवारी है। मगर बिल्ली, जिसमें शेर से कहीं अधिक स्फूर्ति, बचाव के बेहतरीन तरीके एवं अन्य कई महान गुण विद्यमान हैं, जानवर-जगत की ‘मिस यूनिवर्स’ होकर भी अपने ऊपर किसी देवी-देवता को मोहित नहीं कर सकी। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि बिल्लियां स्वाभिमानी होती हैं, चमचागिरी करने के लिए किसी दैव-दरबार में हाजिर नहीं होतीं। वे अपने बूते जिंदा रहती हैं। उन्हें किसी ‘गॉडफादर’ या ‘गॉडमदर’ की जरूरत नहीं है। इस दृष्टि से देखने पर बिल्लियां मुझे सिर्फ खूबसूरत ही नहीं, अपितु पूजनीय लगती हैं।
एक कारण और हो सकता है चूहे को वाहन रूप में गणेशजी द्वारा स्वीकार किए जाने के पक्ष में। संभव है कि प्राचीनकाल में, जब गणेशजी का जन्म हुआ था, तब बिल्लियां न रही हों, तथा उनकी उत्पत्ति काफी समय बाद द्वापर या कलियुग में हुई हो। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जहां बिल्लियां नहीं होती, वहां के चूहे बिल्ली से भी ज्यादा तगड़े हो जाते हैं। निश्चय ही सतयुग के चूहे वर्तमान चूहों से काफी हृष्ट-पुष्ट रहे होंगे। दरअसल आसपास बिल्ली की उपस्थिति चूहों को डायटिंग के लिए मजबूर करती है। यदि बिल्ली वाले घर में चूहे बिना डायटिंग किए दिन-रात जमकर खाते रहें, तो वह अपने मोटापे के कारण तेज भागने में सफल नहीं होंगे। यही कारण है कि बिल्लियों के डर से चूहे भी वैसे ही भयभीत रहते हैं, जैसे मोटापे से डरने वाली सुंदर, छरहरी महिलाएं ! बिल्लियों के रहते चूहों को डर-डरकर जीना पड़ता है; इसीलिए दुबले-पतले घरेलू चूहों को देखकर अनायास ही यह शक होना स्वाभाविक है कि चूहे गणेशजी का वजन कैसे उठाते होंगे ?
खैर, यह चूहे जानें और गणेशजी कि वे कैसे आपस में सामंजस्य बिठाते हैं। यह दोनों के बीच का पर्सनल मामला है। बहरहाल हमें तो यही लगता है कि पौराणिक काल में चूहे लगभग हाथी के साइज के ही होते होंगे, तभी विशालकाय गणेशजी उनकी सवारी कर पाते होंगे। यूं थोड़े उन्नीस-बीस जोड़े तो बहुत से पति-पत्नियों के भी होते हैं। हमारे पड़ोसी शर्माजी तो चूहों से भी हल्के कॉकरोची काया के हैं, फिर भी बेचारे तीस-पैंतीस साल से गजगामिनी मिसेज शर्मा को ढो रहे हैं, हालांकि उनके पास एक अदद खटारा स्कूटर है।
मेरे एक अनन्य मित्र हैं। वह प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्य वेद, उपनिषद् और पुराण आदि के मुझसे कई गुणा बड़े जानकार हैं। उनके मतानुसार, गणेशजी यूं ही तैंतीस करोड़ देवताओं में सबसे बुद्धिमान नहीं मान लिए गए। वे समस्त कार्यों में अपनी विलक्षण बुद्धिमत्ता का परिचय देते थे। उनका मानना है कि गणेशजी ने सब जांच-परखकर ही चूहे को अपना वाहन चुना है। एक तो चूहे हर गांव, शहर, प्रदेश, देश एवं समस्त ब्रह्मांड में मिलते हैं। अतः जहां भी जाओ, वहां सवारी का इतंजार नहीं करना पड़ता। दुनिया-भर के एयरपोर्ट व रेलवे स्टेशनों से लेकर जंगल एवं खेतों तक में एक आवाज पर हजारों चूहें दौड़कर आ जाते हैं। संसार में इतनी सर्वसुलभ उपलब्धता शायद ही किसी अन्य वाहन की होगी। इसके अतिरिक्त चूहे के रख-रखाव का खर्च भी नगण्य है। हाथी जैसा भारी-भरकम वाहन बांधने पर किसी भी रईस का साल दो साल में दीवाला निकल सकता है। इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े शहंशाह भी हाथियों की फौज बांधकर कंगाली के कगार पर पहुंच गए थे। यह भी प्रामाणिक पौराणिक सत्य है कि इंद्र की आय का एक बड़ा हिस्सा अकेले ‘ऐरावत’ की मेंटेनेंस पर खर्च होता है। संभवतः यही सब देखकर गणेशजी ने सोच-समझकर चूहे का चुनाव किया होगा, ताकि जहां जाओ, रात होते ही अपने प्रिय वाहन को किसी के भी खेत, गोदाम या घर में छोड़ दो। वहीं घुसकर कागज, कपड़ा रोटी, चावल जो भी मिले, वही खा-पीकर पल जाता है चूहा। न चारे की व्यवस्था करने की जरूरत और न खली-सानी की मशक्कत। महाबदमाश चूहों के इन्हीं सद्गुणों पर गणेशजी मुग्ध हुए होंगे।
चूहों की तुलना में बिल्लियां उतनी भाग्यशाली कभी नहीं रहीं। चूहे प्लेग की महामारी फैलाते हैं, यह सर्वविदित वैज्ञानिक सत्य है, फिर भी उनकी किस्मत देखिए कि वे न केवल गणेशजी की सवारी हैं, बल्कि बीकानेर (राजस्थान) स्थित करणी माता के मंदिर में बड़े श्रद्धाभाव से पूजा भी की जाती है चूहों की। यह सब मौज-मस्ती केवल गणेशजी की बदौलत ही है। उन्हें गणेशजी का आशीर्वाद न होता तो आज चूहों का हमारे यहां भी वियतनाम और चीन जैसा हश्र होता, जहां चूहा दिखते ही उसे मारकर स्वादिष्ट सूप बनाकर पी जाते हैं, और चूहा मारने पर वहां तो प्रति मृत चूहा इनाम तक की व्यवस्था है।
अपने यहां की बिल्लियां किस्मत की कतई धनी नहीं हैं। विदेशों में फिर भी बिल्लियों को अच्छी नजर से देखा जाता है, मगर अपने यहां बिल्लियों को वैसा सम्मान नहीं मिलता, जैसा अन्य जानवरों एवं पक्षियों को मिलता है। बड़े देवताओं की तो खैर छोड़ो, किसी लोकल अथवा छुटभैये देवता ऩे भी बिल्ली को अपना वाहन नहीं बनाया। यह बिल्ली का दुर्भाग्य ही है कि असंख्य गुणों की खान होते हुए भी उस पर कभी किसी देवता की कृपादृष्टि नहीं पड़ी। बिल्ली की जाति का ही शेर–जो रिश्ते में बिल्ली का भानजा है (बिल्ली शेर की मौसी है, ऐसा हमारी कई किताबों में लिखा है)–मां दुर्गा की सवारी है। मगर बिल्ली, जिसमें शेर से कहीं अधिक स्फूर्ति, बचाव के बेहतरीन तरीके एवं अन्य कई महान गुण विद्यमान हैं, जानवर-जगत की ‘मिस यूनिवर्स’ होकर भी अपने ऊपर किसी देवी-देवता को मोहित नहीं कर सकी। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि बिल्लियां स्वाभिमानी होती हैं, चमचागिरी करने के लिए किसी दैव-दरबार में हाजिर नहीं होतीं। वे अपने बूते जिंदा रहती हैं। उन्हें किसी ‘गॉडफादर’ या ‘गॉडमदर’ की जरूरत नहीं है। इस दृष्टि से देखने पर बिल्लियां मुझे सिर्फ खूबसूरत ही नहीं, अपितु पूजनीय लगती हैं।
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